(बदनाम खबरची) उपहास का पात्र बनता देश का मीडिया।
उपहास का पात्र बनता देश का मीडिया।

विश्वसनीयता पर लगते सवाल ?

 

बदनाम खबरची में आज बात करते है, भारतीय प्रेस की गिरती साख की,उड़ते उपहास की एवं मीडिया के हो रहें औद्योगिकरण की।

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया ने आजादी के बाद से देश विकास में, सामाजिक मूल्यों को स्थापित करने के साथ साथ देश विदेश के समाचारों को आम आदमी तक आदान-प्रदान करने में सदैव महती भूमिका निभाई है, देश के बड़े घरानों द्वारा संचालित समाचार पत्रों के मालिकों ने कभी सम्पादकीय कार्यो अथवा समाचारों में कभी हस्तक्षेप शायद ही किया हो? भारतीय प्रेस की विश्वसनीयता के चर्चे देश में ही नहीं विदेशों में भी होती रही है। 

लेकिन पिछले एक दशक से देश के राजनेताओं के गिरते स्तर के मकड़जाल में यहां का मीडिया भी फंसता चला जा रहा है, बड़े मीडिया संस्थानों पर चन्द उधोगपतियों ने कब्जा कर लिया है,जो किसी न किसी विशेष राजनीतिक दलों के आदेशो पर काम करते है या कहा जा सकता है उनके इशारों पर नाच रहे  है, रही सही कसर उन संस्थानों चापलूसी करने वाले रिपोर्ट्स ने पूरी कर दी,लगता है, प्रेस की भूमिका भांड सरीखी हो गई है। सम्मान की नज़र से देखे जाने वाले मीडिया को आज बिकाऊ, भांड,गोदी मीडिया जैसे अनेकों शब्दों से नवाजा जा रहा है,मीडिया संस्थानों के उधोगपति मालिकों ने सरकार के साथ षड्यंत्र रचकर भारतीय प्रेस के लिए एक चिंताजनक स्थिति और पैदा कर दी है, प्रेस की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले छोटे व मंझोले समाचार पत्रों को समाप्त प्रायः स्थिति में पहुँचा दिया है, राष्ट्रीय समाचार पत्रों ने अपने राष्ट्रीय स्वरूप को समाप्त कर दिया है,उनकी भूमिका अब राष्ट्रीय न हों कर स्थानीय हो कर रह गई है,मीडिया संस्थानों के मालिकों ने सरकार को विश्वास में लेकर छोटे व मंझोले समाचार पत्रों को बन्द होने के कगार पर खड़ा कर दिया है, उनमें काम करने वाले पत्रकारों की हालत और भी गंभीर है,उनको मासिक वेतन चार चार माह तक नहीं मिलता है, ऊपर से नौकरी पर हमेशा तलवार लटकी रहती है, मीडिया पर एक और नया संकट आ खड़ा हुआ है, जबसे इन बड़े संस्थानों ने भांडगिरी शुरू की है, तब से नौकरशाहो नें मीडिया कर्मियों पर रौब ग़ालिब करना आरंभ कर दिया है, गाज़ियाबाद के एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में कार्यरत एक पत्रकार ने जीडीए के विरुद्ध एक समाचार छाप दिया,फलस्वरूप जीडीए वीसी ने उस समाचार पत्र के विज्ञापन पर रोक लगा दी, जब इस घटना की जानकारी मीडिया हाउस के मालिकान को हुई तो आनन फानन में उक्त पत्रकार से न केवल माफी मंगवाई गई, बल्कि कुछ समय बाद उसे नौकरी से भी निकाल दिया,यह तो एक बानगी थीं इस प्रकार की घटना रोज हो रही है... अब किसी पत्रकार की हिम्मत नहीं कि किसी अफसर के भ्र्ष्टाचार पर कुछ बोल सकें, यह सब उनके दिल्ली में बैठे आका तय करते हैं, किसके विरुद्ध व क्या छापना है, मीडिया को नेताओं का सरंक्षण लेना थोड़े स्वार्थों के लिए अच्छा लग सकता है, लेकिन यह लोकतंत्र के लिए गम्भीर संकेत हैं।