लॉकडाउन के चलते गरीबों की मदद कर मनाया"सैफी-डे" 







































सैफी-डे" 6 अप्रैल पर विशेष।

 

सामाजिक बुराई के विरुद्ध एकजुट हो सैफी।

 

वर्ष 2020 का "सैफी डे" एक लंबे समय तक याद किया जाएगा। कारण लॉकडाउन के चलते 6 अप्रैल में अनेकों गाल बजाऊ सैफ़ी संगठनों को लंबे-लंबे भाषणों के सुख से वंचित रहना पड़ रहा हैं। "सैफी डे" पर चन्दाखोरी भी नहीं हो पाई। लेकिन इसके बाबजूद सैफ़ी जमात के लिए वास्तव में कार्य कर रहे कुछ संगठन जरूर "सैफी-डे" पर सामाजिक गतिविधियां करते नज़र आए। सैफ़ी वेलफेयर एसोसिएशन के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जनाब मास्टर अली शेर सैफ़ी ने बिरादराना सैफ़ी को एक अपील जारी कर लॉकडाउन का पालन करने व गरीबों की मदद करने का आव्हान किया है, जबकि ऑल इंडिया सैफ़ी फ्रंट के कर्ता धर्ताओं ने "सैफी-डे" पर गरीबो में राशन सामग्री का वितरण कर उनकी दुआएं बटोरी इसी प्रकार का प्रयास सैफ़ी संघर्ष समिति के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हाजी कमाल सैफ़ी द्वारा किया गया। उन्होंने भी अपने स्तर पर लोगों की मदद कर "सैफी-डे" मनाया। पेश है "सैफी डे" पर एक रिपोर्ट सैफी समाज द्वारा "सैफी डे" मनाने की रस्म अदायगी प्रत्येक वर्ष 6 अप्रैल को की जाती है, बिरादरी के कुछ लोगों में "सैफी डे"  मनाने की होड़ लगी रहती है, फलस्वरुप अनेकों सैफी संगठन कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह पनप गये हैं।

      लुहार-बढ़ई के नाम से जानी जाने वाली यह कौम आज देश भर में सैफ़ी नाम से अपनी पहचान बनाने में कामयाब रही हैं, यह बिरादरी देश भर में अपनी कारीगरी के लिए प्रसिद्ध है,हर क्षेत्र में सैफ़ी समाज के लोगों ने अपने हुनर का लोहा मनवाया है, लेकिन हिन्दुस्तान में करोड़ों की संख्या में बसने वाली सैफी बिरादरी राजनीति के पायदान में आज भी सबसे नीचे है।

आइये लोहार-बढ़ई से "सैफी " बनने वाली कहानी पर एक नजर डालते हैं,

अमरोहा में आयोजित एक सम्मेलन में

बिरादरी के हजारों लोगों के बीच

6 अप्रैल 1975 को लुहार-बढ़इयों ने अपने को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने के उद्देश्य से अपनी बिरादरी को सैफी नाम दिया, जिसमें उस समय के बिरादरी के कुछ खास लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनमें मुख्य रूप से स्वतंत्रता सेनानी और अल-जमियत (उर्दू समाचारपत्र ) के संपादक हज़रत मौलाना उस्मान, मुल्ला सईद पहलवान (अमरोहा) डॉ मेहरूद्दीन खान ( पत्रकार,नवभारत टाइम्स ) बाबू हनीफ बछरायूंनी, अली हसन सैफ़ी (पत्रकार) आदि प्रमुख थे।

     इतनी मशक्कत के बाद भी "सैफी" नाम को समाज के प्रबुद्ध नागरिकों ने कभी स्वीकार नहीं किया, आज भी काफी संख्या में लोहार- बढ़ई अपने नाम के साथ सिद्दीकी, मलिक, सैफ, गोरी, भारती,दाउदी व कादरी जैसे अनेकों सर -नेम लगाते हैं।

सैफी समाज के अधिकतर लोग आज भी आर्थिक तंगी व कुरूतियों से जूझ रहे है, समाज का कोई रहनुमा नहीं है, जो चंद लोग समाज का नेता होने का दंभ भरते है, वह मात्र "सैफी डे" पर मोटा चंदा करके करके बिरादरी के लोगों को बिरयानी खिलाने अपना भाषण पिलाने व अपने बड़े-बड़े होडिंग छपवाने तक सिमट कर रह गए है, बिरादरी का प्रबुद्ध वर्ग वर्ग प्रबुद्ध वर्ग वर्ग इस प्रकार के आयोजनों को फिजूलखर्ची मानता है, यदि वास्तव में सैफी बिरादरी की तरक्की व उथान के लिए काम करना चाहते है, तो सैफी बिरादरी के कर्ताधर्ताओं को समझ लेना चाहिए कि वह बिरयानी खिलाने भाषण देने से संभव नहीं होने वाला, सब लोग मिलकर बिरादरी में फैली सामाजिक कुरीतियों समाप्त करने का बीड़ा उठाएं, दहेज जैसी सामाजिक बुराई के विरुद्ध मीटिंग करके दहेज लेने-देने वालों का  सामाजिक बहिष्कार करें, शादी कि दावत में खाने के मीनू को सीमित करें, स्कूल खोलें, बिरादरी के बेरोजगारों की मदद करके उनके कारोबार स्थापित करें, लड़कियों / लड़कों को उच्च शिक्षा दिलाए, आर्थिक अभाव में स्कूलों से वंचित बच्चों की मदद कर उनकी पढ़ाई कराएं, खाली"सैफी डे" पर गाल-बजाई से सैफी बिरादरी का उत्थान नहीं होने वाला।

 

 


 



 



 















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